Medicinal Plant



औषधीय कृषि

कुदरत ने इस धरती पर मानव कल्याण के लिए भांति-भांति की फसलों को पैदा किया है जो सभी विभिन्न विलक्षण गुणों से ओत-प्रोत हैं। कुछ फसलें हमारे भोजन की स्रोत हैं तो कुछ हमारे प्रोटीन तथा खाद्य वसा की। कुछ स्वास्थ्यवर्धक मीठे-मीठे फल हैं तो कुछ पौष्टिकता से भरी हुई शाक-सब्जियां हैं। कुछ हमारे भोजन को सुगंध, आकर्षण तथा स्वाद प्रदान करती हैं तो दूसरी हमारे भोजन में मिठास घोल देती हैं। कुछ फसलें हमें तन ढकने के लिए कपड़ा प्रदान करती हैं तो कुछ फसलें हमारे शरीर में उत्पन्न रोगों को दूर कर हमें स्वस्थ बना देती हैं। कुछ फसलें जल के भीतर होती हैं जैसे- कमल, मखाना, सिंघाड़ा तथा धान तो कुछ बिना सिंचाई के। जरा सोचिए, क्या कुदरत का करिश्मा है?

सतावर

औषधीय पौधों की दहलीज को अब पार कर सतावर ने औषधीय फसल का दर्जा प्राप्त कर लिया है। औषधीय फसलों में सतावर अद्भुत गुणों वाली एक फसल है जिसे बिना सिंचाई के उगाया जाता है क्योंकि इसकी जल की आवश्यकता प्रकृति प्रदत्त जल से हो जाती है। प्रकृति ने इस फसल की पत्तियों को सुईनुमा बनाया है तथा पौधों के ऊपर बड़े-बड़े कांटें बनाए हैं जिससे जल कम उड़ता है तथा भूमि से प्राप्त जल से ही पौधों का काम चल जाता है। अतः सतावर की कृषि जल संरक्षण का ग्रामीण अभियान है।

सतावर जड़ वाली एक औषधीय फसल है जिसकी मांसल जड़ों का इस्तेमाल विभिन्न प्रकार की औषधियों के निर्माण में होता है। सतावर को लोग भिन्न-भिन्न नाम से पुकारते हैं। अंग्रेज लोग इसे एस्पेरेगस कहते हैं। कहीं इसे लोग शतमली तो कहीं शतवीर्या कहते हैं। सतावर कहीं वहुसुत्ता के नाम से विख्यात है तो कहीं यह शतावरी के नाम से भी। यह औषधीय फसल भारत के विभिन्न प्रांतों में प्राकृतिक अवस्था में भी खूब पाई जाती है। विश्व में सतावर भारत के अतिरिक्त ऑस्ट्रेलिया, नेपाल, चीन, बांग्लादेश तथा अफ्रीका में भी पाया जाता है।

सतावर का वानस्पतिक विवरण

सतावर का पौधा झाड़ीदार, कांटेदार लता होता है। इसकी शाखाएं पतली होती हैं। पत्तियां सुई के समान होती हैं जो 1.5-2.5 सेमी तक लम्बी होती हैं। इसके कांटे टेढ़े तथा 6-8 सेंमी लम्बे होते हैं। इसकी शाखाएं चारों ओर फैली होती हैं। इसके फूल सफेद या गुलाबी रंग के सुगंधयुक्त, छोटे, अनेक शाखाओं वाले डंठल पर लगते हैं जो फरवरी और मार्च में फूलते हैं। अप्रैल में फल बढ़कर बड़े-बड़े हो जाते हैं। फल मटर के समान 1-2 बीज युक्त होते हैं। इसके बीज पकने पर काले होते हैं। इसकी जड़े कन्दवत 20-30 सेंमी लम्बी, 1-2 सेंमी मोटी तथा गुच्छे में पैदा होती हैं। जड़ों की संख्या प्रति लता में 60-100 तक होती है। ये जड़े धूसर पीले रंग की हल्की सुगंधयुक्त स्वाद में कुछ मधुर तथा कड़वी लगती हैं। मांसल जड़ों को आदिवासी लोग पूरे पकने पर चाव से खाते हैं। यह सूखने पर भी प्रयोग में लाई जाती हैं। इन्हीं श्वेत जड़ों का प्रयोग चिकित्सा कार्य हेतु होता है। सूखी जड़े बाजार में सतावर के नाम से बेची जाती है। जिसमें सतावरिन-1 तथा सतावरिन-4 में ग्लूकोसाइड रसायन प्रमुख रूप से पाया जाता है। यही रसायन इसके औषधीय गुणों का स्रोत है।

सतावर के लिए उपयुक्त जलवायु

सतावर की खेती के लिए उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उत्तम होती है। ऐसे क्षेत्र जहां का तापमान 10-40 डिग्री सेल्सियस तथा वार्षिक वर्षा 200-250 सेंमी तक होती है, इसकी खेती के लिए उपयुक्त होती है। भारत के उष्ण तथा समशीतोष्ण क्षेत्रों में समुद्र तल से 1200 मीटर तक की ऊंचाई वाले स्थानों पर सतावर की खेती सफलतापूर्वक की जा सकती है। सतावर की फसल में सूखे को सहन करने की अपार शक्ति होती है परंतु जड़ों के विकास के समय मिट्टी में नमी की कमी होने पर उपज प्रभावित होती है।

भूमि का चुनाव, तैयारी तथा खाद का व्यवहार

सतावर की खेती के लिए बलुई दोमट मिट्टी जिसमें कार्बनिक तत्व प्रचुर मात्रा में हो तथा जल निकास की सुविधा हो, होती है। बलुई दोमट भूमि में जड़ों का विकास अच्छा होता है। बलुई दोमट मिट्टी से इसकी जड़ों को आसानी से खोदकर बिना क्षति के निकालना सरल होता है। भारी मटीयार या काली मिट्टी सतावर की खेती के लिए सर्वथा उपयुक्त नहीं होती है। मानसून आने से पहले खेत को 2-3 बार अच्छी तरह जुताई करके मिट्टी को भुरभुरा बना लेना चाहिए तथा खरपतवार और कंकड़-पत्थर निकाल देना चाहिए। अंतिम जुताई के समय मिट्टी में 15-20 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद तथा 8 टन केचुआं की खाद मिला देनी चाहिए। इसके पश्चात खेत में 60 सेंमी की दूरी पर 10 सेंमी ऊंची मेढ़े बना लेनी चाहिए। इन्हीं मेढ़ों पर बाद में 60 सेंमी की दूरी पर अंकुरित पौधे लगाए जाते हैं। चूंकि सतावर एक औषधीय फसल है अतः इसकी खेती में रासायनिक उर्वरक का व्यवहार कभी नहीं करना चाहिए।

एलोवेरा

ग्वारपाठा, घृतकुमारी या एलोवेरा जिसका वानस्पतिक नाम एलोवेरा बारबन्डसिस हैं तथा लिलिऐसी परिवार का सदस्य है। इसका उत्पत्ति स्थान उत्तरी अफ्रीका माना जाता है। एलोवेरा को विभिन्न भाषाओं में अलग-अलग नाम से पुकारा जाता है, हिन्दी में ग्वारपाठा, घृतकुमारी, घीकुंवार, संस्कृत में कुमारी, अंग्रेजी में एलोय कहा जाता है। एलोवेरा में कई औषधीय गुण पाये जाते हैं, जो विभिन्न प्रकार की बीमारियों के उपचार में आयुर्वेदिक एंव युनानी पद्धति में प्रयोग किया जाता है जैसे पेट के कीड़ों, पेट दर्द, वात विकार, चर्म रोग, जलने पर, नेत्र रोग, चेहरे की चमक बढ़ाने वाली त्वचा क्रीम, शेम्पू एवं सौन्दर्य प्रसाधन तथा सामान्य शक्तिवर्धक टॉनिक के रूप में उपयोगी है। इसके औषधीय गुणों के कारण इसे बगीचों में तथा घर के आस पास लगाया जाता है। पहले इस पौधे का उत्पादन व्यावसायिक रूप से नहीं किया जाता था तथा यह खेतों की मेढ़ में नदी किनारे अपने आप ही उग जाता है। परन्तु अब इसकी बढ़ती मांग के कारण कृषक व्यावसायिक रूप से इसकी खेती को अपना रहे हैं, तथा समुचित लाभ प्राप्त कर रहे हैं। एलोवेरा के पौधे की सामान्य उंचाई 60-90 सेमी. होती है। इसके पत्तों की लंबाई 30-45 सेमी. तथा चौड़ाई 2.5 से 7.5 सेमी. और मोटाई 1.25 सेमी. के लगभग होती है। एलोवेरा में जड़ के ऊपर जो तना होता है उसके उपर से पत्ते निकलते हैं, शुरूआत में पत्ते सफेद रंग के होते हैं। एलोवेरा के पत्ते आगे से नुकीले एवं किनारों पर कटीले होते हैं। पौधे के बीचो बीच एक दण्ड पर लाल पुष्प लगते हैं। हमारे देश में कई स्थानों पर एलोवेरा की अलग- अलग प्रजातियां पाई जाती हैं। जिसका उपयोग कई प्रकार के रोगों के उपचार के लिये किया जाता है। इसकी खेती से अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसान भाई निम्न बातें ध्यान में रखे:-

जलवायु एवं मृदा

यह उष्ण तथा समशीतोष्ण जलवायु वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। कम वर्षा तथा अधिक तापमान वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है। इसकी खेती किसी भी प्रकार की भूमि मंड की जा सकती है। इसे चट्टानी, पथरीली, रेतीली भूमि में भी उगाया जा सकता है, किन्तु जलमग्न भूमि में नहीं उगाया जा सकता है। बलुई दोमट भूमि जिसका पी.एच. मान 6.5 से 8.0 के मध्य हो तथा उचित जल निकास की व्यवस्था हो उपयुक्त होती है।

खेत की तैयारी

ग्रीष्मकाल में अच्छी तरह से खेत को तैयार करके जल निकास की नालियां बना लेना चाहिये तथा वर्षा ऋतु में उपयुक्त नमी की अवस्था में इसके पौधें को 50 & 50 सेमी. की दूरी पर मेढ़ अथवा समतल खेत में लगाया जाता है। कम उर्वर भूमि में पौधों के बीच की दूरी को 40 सेमी. रख सकते हैं। जिससे प्रति हेक्टेयर पौधों की संख्या लगभग 40,000 से 50,000 की आवश्यकता होती है। इसकी रोपाई जून-जुलाई माह में की जाती है। परन्तु सिंचित दशा में इसकी रोपाई फरवरी में भी की जा सकती है।

कटाई एवं उपज

इस फसल की उत्पादन क्षमता बहुत अधिक हैं फसल की रोपाई के बाद एक वर्ष के बाद पत्तियां काटने लायक हो जाती है। इसके बाद दो माह के अन्तराल से परिपक्व पत्तियों को काटते रहना चाहिए। सिंचित क्षेत्र मे प्रथम वर्ष में 35-40 टन प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। तथा द्वितीय वर्ष में उत्पादन 10-15 फीसदी तक बढ़ जाता है। उचित देखरेख एवं समुचित पोषक प्रबंधन के आधार पर इससे लगातार तीन वर्षों तक उपज ली जा सकती है। असिंचित अवस्था में लगभग 20 टन प्रति हेक्टर उत्पादन मिल जाता है।

कटाई एवं उपज

इस फसल की उत्पादन क्षमता बहुत अधिक हैं फसल की रोपाई के बाद एक वर्ष के बाद पत्तियां काटने लायक हो जाती है। इसके बाद दो माह के अन्तराल से परिपक्व पत्तियों को काटते रहना चाहिए। सिंचित क्षेत्र मे प्रथम वर्ष में 35-40 टन प्रति हेक्टर उत्पादन होता है। तथा द्वितीय वर्ष में उत्पादन 10-15 फीसदी तक बढ़ जाता है। उचित देखरेख एवं समुचित पोषक प्रबंधन के आधार पर इससे लगातार तीन वर्षों तक उपज ली जा सकती है। असिंचित अवस्था में लगभग 20 टन प्रति हेक्टर उत्पादन मिल जाता है।

प्रवर्धन विधि एवं रोपाई

इसका प्रवर्धन वानस्पतिक विधि से होता है। व्यस्क पौधों के बगल से निकलने वाले चार पांच पत्तियों युक्त छोटे पौधे उपयुक्त होते हैं, प्रारंभ में ये पौधे सफेद रंग के होते हैं, तथा बड़े होने पर हरे रंग के हो जाते हैं। इन स्टोलन/सर्कस को मातृ पौधे से अलग करके नर्सरी या सीधे खेत में रोपित करते हैं।